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एक नजरिया........तार्किक होना

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एक नजरिया

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रीति रिवाज और महिलाये

रीति रिवाजों में छुपा जेण्डर भेदभाव - श्रंखला ‘‘एक’’ अगस्त माह से नवंबर तक भारत वर्ष में कुछ महत्वपूर्ण पर्व मनाये जाते हैं। जिसमें रक्षाबंधन और करवाचैथ, सार्वभौमिक रूप से मनाया जाता है और नागपंचमी के दिन गुड़िया पटक्का और झेझीं अैर टेसू दो क्षेत्रीय त्यौहार है। गुड़िया पटक्का मुख्यतः पूर्वांचल का त्यौहार है जो सीतापुर के नैमीषारण्य जिले में प्रमुखता से मनाया जाता है। झेझीं टेसू पष्चिमी उत्तर प्रदेश का त्यौहार जो कि औरैया, एटा, मैनपुर, आदि जिलों में मुख्यतः मनाया जाता है। इन सभी त्यौहारों में एक बात सामान्य है कि सब में औरत ही अपने घर के पुरूषों की दीर्घआयु, स्वास्थ्य, सुरक्षा आदि की कामना करती है। लोग कहते है भारत में आज समानता है और अब तो लड़कियां भी बराबरी से कंधे से कंधा मिलाकर चल रही हैं। तो हमारी परम्पराओं में बदलाव क्यों नही आ रहा है। क्यों अभी भी महिलायें ही पुरूषों की लम्बी कामनाओं की उम्मीद से व्रत या पूजन कर रही हैं। भाई बहन की कलाई पर धागा बांधकर अपनी रक्षा की कामना करती हैं परन्तु क्या वास्तविकता में ऐसा हो रहा है क्या भाई बराबरी से अपनी बहन के हक और सम्मान की लड़ाई कर पा

महिला सशक्तीकरण एक विचारधारा

महिला सशक्तीकरण एक विचारधारा है। इस विचारधारा को समझना और लागू करना एक जटिल कार्य है। महिला सशक्तीकरण से आशय है कि किसी भी महिला या लड़की को अपने सपने देखने और उसको पूरा करने का अधिकार हो उसकी पहचान हो उसको निर्णय लेने का अधिकार हो, वह अपनी बात कहने के लिए स्वतंत्र हो, संसाधनों और सम्पत्ति पर उसका अधिकार हो और ऐसे मंचों तक उसकी हिस्सेदारी हो जो नीति और नियमों का निर्धारण करते हों। जब तक महिला सशक्तीकरण को इस वृहत्त और सम्यक रूप में नही देखा और समझा जायेगा तब तक वास्तिविक सशक्तीकरण आना संभव नही है। ऐसा मेरा विचार 27 वर्षाे के महिला सशक्तीकरण के एक परिवक्व कार्यक्रम से 18 साल के जुड़ाव से विकसित हुआ। आमतौर पर सशक्तीकरण के लिए महिलाओं की सुरक्षा को एक अहम मुद्दे के रूप में देखा जाता है और इसके लिए सरकार द्वारा आजादी के समय से बहुत से कानून व नीतियों का निर्माण किया गया, लेकिन आजादी के 70 वर्षो बाद भी महिलाओं की सुरक्षा, सम्मान व पहचान एक ऐसे दो राहे पर खड़ी है जिसके अंत का छोर दिखता ही नही है। जितने नियम व कानून बनाए जाते हैं उतनी ही तेजी से महिलाओं के साथ होने वाली ंिहंसा उभर कर आती है। व

शौच स्वच्छता और सुरक्षा

शौच जाना एक दैनिक जैविक प्रक्रिया है परन्तु हमारे समाज में ढांचागत सुविधाओं के अभाव में खुले में शौच जाने की पुरानी परम्परा रही है। खुले में शौच जाना निश्चित तौर पर सभी के लिए चाहे वो स्त्री हो या पुरूष, एक हानिकारक प्रक्रिया है और इससे फैलने वाला प्रदूषण समाज के प्रत्येक नागरिक पर बराबरी से प्रभाव डालता है। किन्तु समाजिक संरचना और ढांचे के कारण महिलाओं और किशोरियों पर इसका प्रभाव ज्यादा नकारात्मक है। दिनांक 30.6.2017 को बेलवां, ब्लाक बिसंवां, जिला सीतापुर के प्रधान की पुत्री जब सुबह 6.00 बजे शौच के लिए गयी तो उस समय गांव के ही कुछ युवकों ने बलात्कार के बाद उसकी हत्या कर दी। इसी प्रकार रामगढ़, ब्लाक अछल्दा, जनपद औरैया में एक औरत की प्रातः शौच के दौरान गांव के युवकों द्वारा ही बलात्कार किया गया। पुवाया, शाहजहांपुर में भी जब किशोरी सुबह शौच के लिए गयी उसके बाद उसका भी खेत में बलात्कार किया गया। इस तरीके केी एक नही अनेक घटनाएं हैं और बलात्कार को हिंसा का बेहद घिनौना रूप है परन्तु बलात्कार से पूर्व की जाने वाली घटना जैसे छेड़खानी, छीटाकशी आदि हिंसा के आरम्भिक रूप तो अधिकतर महिलाएं व किशोरि

कैसी शर्म

28 मई अन्तर्राष्ट्रीय मेन्सच्यूरेशन दिवस के रूप में मनाया जाता है। यह महिलाओं के जीवन से जुड़ा एक प्राकृतिक जैविक चक्र है। परन्तु हमारे देश में हर महिला को इस स्वभाविक मासिक प्रक्रिया से जुडी़ किसी न किसी गैर मान्यता प्राप्त भ्रान्तियों, अन्धविष्वासों से गुजरना पड़ता है। महिला समाख्या में जब महिलाओं के साथ उनके दुख सुख के विषय पर और स्वास्थ्य से जुड़े मुद्दे पर सघन रूप से चर्चा की गयी तो माहवारी से जुड़ बहुत सारे ऐसे अभ्यास जानकारी मंे आये जो महिलाओं के लिये बेहद पीड़ा दायक हैं। जैसे मथुरा जिले में एक खास सम्प्रदाय में माहवारी के दौरान महिलाओं को एक खास स्थान पर पांच दिन के लिये बैठा दिया जाता है। इसी प्रकार बहुत सारे भोजन सामग्री को उस दौरान महिलाओं को स्पर्श करने से मना किया जाता है। महिलाएं पूजा पाठ और खास अवसरों से भी इस दौरान वंचित की जाती है। इन व्यवहारों के लिये समाजीकरण की इतनी सघन प्रक्रिया है कि यह व्यवहारिक भेदभाव और अन्धविश्वास पीढ़ी दर पीढ़ी महिलाआंे में हस्तान्तरित होता रहता है। जब कि वास्तविकता यह है माहवारी एक महिला को सशक्त और सक्षमता प्रदान करने की प्रक्रिया है। यह प्रक्रि

रीति-रिवाज, परम्पराओं में बदलाव से सोच में परिवर्तन

जेण्डर एक ऐसा शब्द है जो विश्व स्तर पर सामाजिक प्रचलनों पर आधारित भेदभाव को व्याखित करता है। जेण्डर आधारित भेदभाव, जेण्डर आधारित हिंसा दुनिया की आधी आबादी के विकास में बाधा पहुंचाना का सबसे बडा कारण माना जा रहा है। यही कारण है कि शताब्दी के विकास लक्ष्य (मिलेनियम डवलपमेंट गोल)े में भी जेण्डर आधारित भेदभाव को दूर करने के लिये विश्व के समस्त दोषों से यह अपेक्षा की गयी कि वे अपने अपने देश में प्रचलित जेण्डर आधारित भेदभाव को दूर करने के लिये नियम, नीतियां, योजनायंे और कानून बनायें। महिला समाख्या कार्यक्रम इसी जेण्डर आधारित भेदभाव को दूर करने के लिये बनाया गया। जिसका मुख्य लक्ष्य महिला सशक्तीकरण है। हमारे  समाज में बहुत सी ऐसी परम्पराएं, रीति-रिवाज, संस्कार, उपवास प्रचलन में हैं जिसका निर्वहन सिर्फ महिलाओं को करना होता है। उ0 प्र0 में भी अलग अलग क्षेत्रों में अलग अलग परम्पराए रीतियां उपवास प्रचलित हैं। महिला समाख्या ने जब महिलाओं के बीच उनके सुख दुख को बांटने, उनकी दैनिक दिनचर्या पर चर्चा करने के लिये बातचीत की तो उन रीतियों, परम्पराओं, उपवासों के बारे में उनसे जुड़ी हिंसा का अनुभव हुआ। अब