महिला सशक्तीकरण एक विचारधारा है। इस विचारधारा को समझना और लागू करना एक जटिल कार्य है। महिला सशक्तीकरण से आशय है कि किसी भी महिला या लड़की को अपने सपने देखने और उसको पूरा करने का अधिकार हो उसकी पहचान हो उसको निर्णय लेने का अधिकार हो, वह अपनी बात कहने के लिए स्वतंत्र हो, संसाधनों और सम्पत्ति पर उसका अधिकार हो और ऐसे मंचों तक उसकी हिस्सेदारी हो जो नीति और नियमों का निर्धारण करते हों। जब तक महिला सशक्तीकरण को इस वृहत्त और सम्यक रूप में नही देखा और समझा जायेगा तब तक वास्तिविक सशक्तीकरण आना संभव नही है। ऐसा मेरा विचार 27 वर्षाे के महिला सशक्तीकरण के एक परिवक्व कार्यक्रम से 18 साल के जुड़ाव से विकसित हुआ।
आमतौर पर सशक्तीकरण के लिए महिलाओं की सुरक्षा को एक अहम मुद्दे के रूप में देखा जाता है और इसके लिए सरकार द्वारा आजादी के समय से बहुत से कानून व नीतियों का निर्माण किया गया, लेकिन आजादी के 70 वर्षो बाद भी महिलाओं की सुरक्षा, सम्मान व पहचान एक ऐसे दो राहे पर खड़ी है जिसके अंत का छोर दिखता ही नही है। जितने नियम व कानून बनाए जाते हैं उतनी ही तेजी से महिलाओं के साथ होने वाली ंिहंसा उभर कर आती है। वर्ष 2004-05 में सीतापुर में एक महिला की हत्या की जाती है और उसके पति द्वारा ही उसके पेट को काट कर उसकी साड़ी उसमें ठूस दी जाती है और उसके जितने संवेदनशील अंग हैं उनको क्षत-विक्षत कर दिया जाता हैं। 2006 में लखनऊ एक नाबालिग बच्ची के साथ हिंसा की घटना होती है और उसकी वीभत्सता भी सीतापुर केस की तरह सघन थी। 2012 में देश की राजधानी में एक महिला के साथ हिंसा होती है। पूरा देश हिल जाता है और कानूनों में संशोधन कर दिया जाता है। 2016 में बुलंदशहर हाइवे पर महिलाओं के साथ हिंसा होती है और 2017 में गुड़गांव, सोनीपत, लखनऊ इन शहरों के साथ देश के हर शहरों में महिलाओं के साथ होने वाली जघन्य और वीभत्स महिला हिंसा की अनेक घटनाएं रोज हम लोग पढ़ते हैं, सुनते हैं।
आखिर इतने प्रयासों के बावजूद व्यवस्था में कहां पर और कौन सी चूक हो रही है जिससे महिलाओं के प्रति होने वाली हिंसा में और उसके स्वरूप में उत्तरोत्तर वृद्धि हो रही है। सभी प्रयासों के बावजूद जिनको उन प्रयासों को क्रियान्वित करना है उनकी मानसिकता अभी भी पितृसत्तात्मक और परम्परागत है। यह एक बड़ा कारण है। अब इसमें बदलाव लाने के लिए आवश्यक है कि लोगों की विचारधारा, मानसिकता बदले जिससे हमारे सामाजिक ढ़ाचे और स्वरूप में बदलाव आये। क्योंकि अभी भी हमारे सामाजिक ढ़ाचे में महिलाओं की भूमिका महिलाओं की जिम्मेदारी और पहचान के स्वरूप मंे बदलाव का प्रतिशत बहुत निम्न है इसलिए महिलाएं अभी भी एक उत्पाद (जिसका कोई मूल्य नही है) और निःशुल्क कार्य सेवक के रूप में देखी जाती हैं। ऊपर जो हिंसा के उदाहरण व्यक्त हैं वो तो महिलाओं के साथ होने वाली ंिहंसा का वह स्वरूप हैं जो कि चारदिवारी के बाहर हैं परन्तु घर के अंदर होने वाली हिंसा तो अभी भी बहुत कम संख्या में आंकड़ों में दर्ज होती है और स्वंय महिला भी उस हिंसा को हिंसा के रूप में संदर्भित नही करती हैं।
इसलिए यदि हमको बदलाव लाना है और वास्तविक सशक्तीकरण को देखना है तो ऐसे कार्यक्रम और योजनाओं को लागू करना होगा जो लोगों की मानसिकता को बदलें व्यवस्था के ढांचे में बदलाव के लिए उससे जुड़े सक्षम अधिकारियों को इस प्रकार से संवेदनशील और जिम्मेदार बनाना होगा जो महिलाओं को महिला के रूप में सम्मान देने और पहचान देने और समझने के लिए तैयार हों। प्रत्येक मंचों, स्थानों, समुदायों में महिलाओं की संख्या बढ़े ऐसी व्यवस्था लागू करनी होगी। महिला समाख्या जैसे कार्यक्रम को स्वरूप को अन्य विभागों के जमीनी स्तर से जुड़े ढ़ांचे में शामिल करना होगा। प्रत्येक नागरिक यह सोचेगा कि सबको बराबरी का हक हो, सबकी बराबरी से हिस्सेदारी हो तभी वास्तविक सशक्तीकरण आयेगा।
आमतौर पर सशक्तीकरण के लिए महिलाओं की सुरक्षा को एक अहम मुद्दे के रूप में देखा जाता है और इसके लिए सरकार द्वारा आजादी के समय से बहुत से कानून व नीतियों का निर्माण किया गया, लेकिन आजादी के 70 वर्षो बाद भी महिलाओं की सुरक्षा, सम्मान व पहचान एक ऐसे दो राहे पर खड़ी है जिसके अंत का छोर दिखता ही नही है। जितने नियम व कानून बनाए जाते हैं उतनी ही तेजी से महिलाओं के साथ होने वाली ंिहंसा उभर कर आती है। वर्ष 2004-05 में सीतापुर में एक महिला की हत्या की जाती है और उसके पति द्वारा ही उसके पेट को काट कर उसकी साड़ी उसमें ठूस दी जाती है और उसके जितने संवेदनशील अंग हैं उनको क्षत-विक्षत कर दिया जाता हैं। 2006 में लखनऊ एक नाबालिग बच्ची के साथ हिंसा की घटना होती है और उसकी वीभत्सता भी सीतापुर केस की तरह सघन थी। 2012 में देश की राजधानी में एक महिला के साथ हिंसा होती है। पूरा देश हिल जाता है और कानूनों में संशोधन कर दिया जाता है। 2016 में बुलंदशहर हाइवे पर महिलाओं के साथ हिंसा होती है और 2017 में गुड़गांव, सोनीपत, लखनऊ इन शहरों के साथ देश के हर शहरों में महिलाओं के साथ होने वाली जघन्य और वीभत्स महिला हिंसा की अनेक घटनाएं रोज हम लोग पढ़ते हैं, सुनते हैं।
आखिर इतने प्रयासों के बावजूद व्यवस्था में कहां पर और कौन सी चूक हो रही है जिससे महिलाओं के प्रति होने वाली हिंसा में और उसके स्वरूप में उत्तरोत्तर वृद्धि हो रही है। सभी प्रयासों के बावजूद जिनको उन प्रयासों को क्रियान्वित करना है उनकी मानसिकता अभी भी पितृसत्तात्मक और परम्परागत है। यह एक बड़ा कारण है। अब इसमें बदलाव लाने के लिए आवश्यक है कि लोगों की विचारधारा, मानसिकता बदले जिससे हमारे सामाजिक ढ़ाचे और स्वरूप में बदलाव आये। क्योंकि अभी भी हमारे सामाजिक ढ़ाचे में महिलाओं की भूमिका महिलाओं की जिम्मेदारी और पहचान के स्वरूप मंे बदलाव का प्रतिशत बहुत निम्न है इसलिए महिलाएं अभी भी एक उत्पाद (जिसका कोई मूल्य नही है) और निःशुल्क कार्य सेवक के रूप में देखी जाती हैं। ऊपर जो हिंसा के उदाहरण व्यक्त हैं वो तो महिलाओं के साथ होने वाली ंिहंसा का वह स्वरूप हैं जो कि चारदिवारी के बाहर हैं परन्तु घर के अंदर होने वाली हिंसा तो अभी भी बहुत कम संख्या में आंकड़ों में दर्ज होती है और स्वंय महिला भी उस हिंसा को हिंसा के रूप में संदर्भित नही करती हैं।
इसलिए यदि हमको बदलाव लाना है और वास्तविक सशक्तीकरण को देखना है तो ऐसे कार्यक्रम और योजनाओं को लागू करना होगा जो लोगों की मानसिकता को बदलें व्यवस्था के ढांचे में बदलाव के लिए उससे जुड़े सक्षम अधिकारियों को इस प्रकार से संवेदनशील और जिम्मेदार बनाना होगा जो महिलाओं को महिला के रूप में सम्मान देने और पहचान देने और समझने के लिए तैयार हों। प्रत्येक मंचों, स्थानों, समुदायों में महिलाओं की संख्या बढ़े ऐसी व्यवस्था लागू करनी होगी। महिला समाख्या जैसे कार्यक्रम को स्वरूप को अन्य विभागों के जमीनी स्तर से जुड़े ढ़ांचे में शामिल करना होगा। प्रत्येक नागरिक यह सोचेगा कि सबको बराबरी का हक हो, सबकी बराबरी से हिस्सेदारी हो तभी वास्तविक सशक्तीकरण आयेगा।
Good article, brmhanism and patriarchy are rute cause of all kind of discrimination.
ReplyDeleteGood article, brmhanism and patriarchy are rute cause of all kind of discrimination.
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