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रीति-रिवाज, परम्पराओं में बदलाव से सोच में परिवर्तन

जेण्डर एक ऐसा शब्द है जो विश्व स्तर पर सामाजिक प्रचलनों पर आधारित भेदभाव को व्याखित करता है। जेण्डर आधारित भेदभाव, जेण्डर आधारित हिंसा दुनिया की आधी आबादी के विकास में बाधा पहुंचाना का सबसे बडा कारण माना जा रहा है। यही कारण है कि शताब्दी के विकास लक्ष्य (मिलेनियम डवलपमेंट गोल)े में भी जेण्डर आधारित भेदभाव को दूर करने के लिये विश्व के समस्त दोषों से यह अपेक्षा की गयी कि वे अपने अपने देश में प्रचलित जेण्डर आधारित भेदभाव को दूर करने के लिये नियम, नीतियां, योजनायंे और कानून बनायें।
महिला समाख्या कार्यक्रम इसी जेण्डर आधारित भेदभाव को दूर करने के लिये बनाया गया। जिसका मुख्य लक्ष्य महिला सशक्तीकरण है। हमारे  समाज में बहुत सी ऐसी परम्पराएं, रीति-रिवाज, संस्कार, उपवास प्रचलन में हैं जिसका निर्वहन सिर्फ महिलाओं को करना होता है। उ0 प्र0 में भी अलग अलग क्षेत्रों में अलग अलग परम्पराए रीतियां उपवास प्रचलित हैं। महिला समाख्या ने जब महिलाओं के बीच उनके सुख दुख को बांटने, उनकी दैनिक दिनचर्या पर चर्चा करने के लिये बातचीत की तो उन रीतियों, परम्पराओं, उपवासों के बारे में उनसे जुड़ी हिंसा का अनुभव हुआ। अब रीति रिवाजों, परम्पराओं व उपवासों के पीछे छिपी महिलाओं के साथ होने वाली हिंसा की अवधारणा को समझना और फिर महिलाओं को समझाना एक बड़ी चुनौती के रूप में कार्यक्रम के सामने था क्योंकि कार्यक्रम में कार्यरत कार्यकर्ता भी उसी समाज के हिस्सा थे और उन्ही नियमों व समाजीकरण की प्रक्रिया से होकर गुजरे थे जिनका निर्वहन हमारी संघ महिलायें कर रही थीं।
सबसे पहले इन मुददों पर कार्यकर्ताओं के बीच में समझ बनाने का सघन रूप से कार्य किया। जिसमें इन मुददों पर चर्चा हुई- किस प्रकार और किस तरह से यह परम्परायें, तीज त्यौहार, रीति-रिवाज , व्रत उपवास महिलाओं की स्वतंत्रता,  उनकी पहचान और उनकी शक्ति को उनकी कमजोरी के रूप में महिलाओं में स्थापित करते हैं।
सघन चर्चाओं और वाद विवाद के बाद कार्यकर्ताओं ने इस पर अपनी सहमति व्यक्त की कि अब क्षेत्रीय स्तर पर संघों के बीच में इन मुददों को लेकर वार्ता शुरू की जायेगी। क्षेत्र स्तर पर जब खोजना शुरू किया गया तो यह स्पष्ट रूप से पता चला कि परम्पराये, रीतिरिवाज और उपवास ( हर जिले में कोई न कोई परम्परा, व्रत मिले जैसे - औरैया में झींझीं टेसू, गोरखपुर में जौतिया, बनारस में छठपूजा, सीतापुर में छड़ी शगुन, गुड़िया पटक्का और करवा चैथ आदि) दो प्रकार से महिलाओं पर प्रहार कर रही हैं - ‘‘पुरूष को महिलाओं से अधिकत ताकतवर और महान दिखाने  का प्रयास, इसलिये उनके नाम पर अनेक उपवास प्रचलन में हैं।’’ - ‘‘महिलाओं को भी महिलाओं के विरोधी या प्रतिद्वन्दी के रूप में प्रस्तुत करना जिससे  वे आपस में ही द्वेष की भावना रखें और सामाजिक ढ़ाचें में वे बार बार  एक दूसरे के समक्ष दोयम दर्जे के रूप में स्थापित हों।’’ अतः महिला समाख्या ने यह तय किया उन परम्पराओं पर काम किया जायेगा जो महिलाओं केा एक दूसरे के बीच में दोयम दर्जे के रूप मे ंस्थापित करने के लिये प्रचलित हैं जैसे - छड़ी शगुन और गुड़िया पटक्का।
 छड़ी शगुन परम्परा में ‘‘जब लड़की बिदा होकर अपनी ससुराल आती है तो उसकी सास उसे तालाब के किनारे ले जाकर सात छड़ी लगाते हुए बहू का स्वागत करती है। इस परम्परा को बदलने के लिये संघ महिलाओं को यह समझाया कि यह किस तरह से अप्रत्यक्ष रूप से महिलाओं के साथ होने वाली हिंसा और आपसी द्वेष को बढ़ावा देता है। यह परम्परा एक बड़े जद्दो-जहद के बाद संघ महिलाओं ने बहुओं का स्वागत मिठाई खिलाकर करना शुरू किया जिसको देख कर गांव की अन्य महिलाओं व आस पास के लोगों ने बहुओं का स्वागत मिठाई खिलाकर करना शुरू किया।
नेमीषारण्य धार्मिक स्थल पर हर नाग पंचमी के दिन एक बहुत बड़े मेले का आयोजन किया जाता है जिसमें महिलायें शाम के समय नाग पूजा के पश्चात सजी हुई गुड़िया लाती है और सड़क पर डालती है यह बेहद मार्मिक दृश्य होता है परन्तु इस पर लोग आनन्द उठाते हैं। 15 साल पहले वहां के मुख्य महंत से चर्चा कर इस परम्परा को महिला हिंसा से जोड़ते हुए परम्परा के बदलाव  के लिये प्रस्ताव किया और एक लम्बे तर्क वितर्क के बाद महंत जी स्वयं सहमत हुए और नाग पंचमी के दिन आज भी गुड़िया पीटने के बजाये झुलाई जाती है।
कई बार लगता है कि इससे क्या फर्क पड़ेगा ? लेकिन अनेक शोध व मनोवैज्ञानिक इस बात की पुष्टि करते हैं कि व्यवहार और चेतना ही मानसिकता का निर्माण करते हैं। अतः यह छोटे छोट प्रयास ही लोगों की मानसिकता बदलेंगे ऐसा महिला समाख्या का विश्वास है।

Comments

  1. Manila Samakhya is doing well on its initiative but need to social and political will to bring gender equality.

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  2. Manila Samakhya is doing well on its initiative but need to social and political will to bring gender equality.

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कैसी शर्म

28 मई अन्तर्राष्ट्रीय मेन्सच्यूरेशन दिवस के रूप में मनाया जाता है। यह महिलाओं के जीवन से जुड़ा एक प्राकृतिक जैविक चक्र है। परन्तु हमारे देश में हर महिला को इस स्वभाविक मासिक प्रक्रिया से जुडी़ किसी न किसी गैर मान्यता प्राप्त भ्रान्तियों, अन्धविष्वासों से गुजरना पड़ता है। महिला समाख्या में जब महिलाओं के साथ उनके दुख सुख के विषय पर और स्वास्थ्य से जुड़े मुद्दे पर सघन रूप से चर्चा की गयी तो माहवारी से जुड़ बहुत सारे ऐसे अभ्यास जानकारी मंे आये जो महिलाओं के लिये बेहद पीड़ा दायक हैं। जैसे मथुरा जिले में एक खास सम्प्रदाय में माहवारी के दौरान महिलाओं को एक खास स्थान पर पांच दिन के लिये बैठा दिया जाता है। इसी प्रकार बहुत सारे भोजन सामग्री को उस दौरान महिलाओं को स्पर्श करने से मना किया जाता है। महिलाएं पूजा पाठ और खास अवसरों से भी इस दौरान वंचित की जाती है। इन व्यवहारों के लिये समाजीकरण की इतनी सघन प्रक्रिया है कि यह व्यवहारिक भेदभाव और अन्धविश्वास पीढ़ी दर पीढ़ी महिलाआंे में हस्तान्तरित होता रहता है। जब कि वास्तविकता यह है माहवारी एक महिला को सशक्त और सक्षमता प्रदान करने की प्रक्रिया है। यह प्रक्रि