रीति रिवाजों में छुपा जेण्डर भेदभाव - श्रंखला ‘‘एक’’
अगस्त माह से नवंबर तक भारत वर्ष में कुछ महत्वपूर्ण पर्व मनाये जाते हैं। जिसमें रक्षाबंधन और करवाचैथ, सार्वभौमिक रूप से मनाया जाता है और नागपंचमी के दिन गुड़िया पटक्का और झेझीं अैर टेसू दो क्षेत्रीय त्यौहार है। गुड़िया पटक्का मुख्यतः पूर्वांचल का त्यौहार है जो सीतापुर के नैमीषारण्य जिले में प्रमुखता से मनाया जाता है। झेझीं टेसू पष्चिमी उत्तर प्रदेश का त्यौहार जो कि औरैया, एटा, मैनपुर, आदि जिलों में मुख्यतः मनाया जाता है। इन सभी त्यौहारों में एक बात सामान्य है कि सब में औरत ही अपने घर के पुरूषों की दीर्घआयु, स्वास्थ्य, सुरक्षा आदि की कामना करती है। लोग कहते है भारत में आज समानता है और अब तो लड़कियां भी बराबरी से कंधे से कंधा मिलाकर चल रही हैं। तो हमारी परम्पराओं में बदलाव क्यों नही आ रहा है। क्यों अभी भी महिलायें ही पुरूषों की लम्बी कामनाओं की उम्मीद से व्रत या पूजन कर रही हैं।
भाई बहन की कलाई पर धागा बांधकर अपनी रक्षा की कामना करती हैं परन्तु क्या वास्तविकता में ऐसा हो रहा है क्या भाई बराबरी से अपनी बहन के हक और सम्मान की लड़ाई कर पा रहा है। जब बहन की अल्पायु में शादी होती है तो क्या वह भाई रक्षा के लिये खड़ा हो पाता है तो क्या वह भाई रक्षा के लिये खड़ा हो पा रहा है। या जब बहन अपनी पसन्द से शादी करना चाहती है। तो क्या वह भाई उसकी इच्छा में उसके साथ खड़ा हो रहा या उन लोगों के साथ खड़ा रहता है जो लड़कियों के इन मौलिक अधिकारों पर बंधन लगाते हैं? रमिला (गोरखपुर) ने बताया कि मेरा भाई 4 साल का है लेकिन जब मै घर से निकलती हूं तो मेरे घर वाले कहते हैं कि भाई को साथ लिये जाओ। मेरा उनसे सवाल होता है अगर मेरे ऊपर कोई मुसीबत आये तो पहले मै उसकी चिता करूंगी और इस चक्कर में मै न उसको बचा पाऊँगी और न अपने आपको। लेकिन उसके बाद भी वो दबाव बनाकर उसको भेजते हैं।
रक्षाबंधन भावनाओं का त्यौहार है पर हमारी मानसिकता और परम्परागत दृष्टिकोण ने उसको एक संस्कार में बदल दिया, महूर्त देखकर धागा बांधो, बड़ी बहन भी छोटे भाई को राखी बांधकर उसकी आरती उतारेगी और बदले में उपहार अनिवार्य रूप से लेगी। जबकि यदि ऐतिहासिक रूप से रक्षाबंधन को मनाने की कहानी सुनी जाये तो रानी कर्मावती ने युद्ध में मदद के लिये हुमायूँ को धागा भेज कर सहयोग मांगा था। हुमायूँ उससे ताकतवर था और सहिष्णु था। वह एक अलग धर्म का अनुयायी था उसके बाद भी वह मदद के लिये आया। परन्तु आज रक्षाबंधन सिर्फ हिन्दुओं का त्यौहार बन कर रह गया। हर त्यौहार से व्रत जोड़कर औरत को कैसे अंधविश्वासी और धैर्यवान बनाया जाये इसकी जुगत अनिवार्य रूप से की गयी राखी बांधने के पहले बहनें व्रत रखती हैं। साथ ही अन्य घर वालों के लिये पकवान बनाती हैं।
ये सब पितृसत्तात्मक सोच का ही परिणाम है जिसमें औरत को इस प्रकार से घेर लिया जाता है। जिससे उसकी सोचने समझने की शक्ति और तार्किकता समाप्त हो जाती है। इस लिये वह हर तीज त्यौहारों में ही अपना प्यार व भावनाएं समझनें लगती हैं और पूरी श्रद्धा और ईमानदारी से निभाती हैं।
रक्षाबंधन हम सब मनाते हैं। लेकिन यह जेण्डर आधारित भेदभाव की मानसिकता से मनाया जाने वाला त्यौहार है। जिससे अनजाने में ही शारीरिक व मानसिक रूप से हम पुरूष को स्त्री की तुलना में ज्यादा शक्तिशाली व सशक्त मानने की परिकल्पना करते हैं-
रीति रिवाज और परम्पराएं - झेंझी टेसू
पिछले अंक में हमने बात की थी गुड़िया पटक्का की, जो कि महिला हिंसा से जुड़ा हुआ त्योहार है। इसी कड़ी में आज हम बात करेंगे झेंझी टेसू की जो कि पष्चिमी उत्तर प्रदेष- औरैया, मैनपुरी, एटा, इटावा, कन्नौज, कानपुर देहात आदि जिलो में मनाया जाता है यह त्योहार सितम्बर-अक्टूबर में आयोजित होता है। यह त्योहार समाज में चयन के अधिकार पर रोक और समाजिक सम्मान के नाम पर हत्या को उचित ठहराते हुए सार्वजनिक रूप से मनाया जाता है।
इस त्योहार के पीछे छिपी कहानी यह है कि ‘‘झेंझी नामक लड़की को नीची जाति के लड़के टेसू से प्यार हो जाता है और दोनों शादी कर लेते हैं। लेकिन जब यह गांव वालों के सामने आते हैं तो उनके घरवाले व गांव वाले मिलकर दोनों की हत्या कर देते हैं और गांव के तालाब में गाड़ देते हैं। सदियों से इस त्योहार को लोग मना रहे हैं। दो मटकों को प्रतीक चिन्ह झेंझी टेसू के रूप में अपने घरों में सात दिन पूजा करते हैं और उसके पश्चात् उनकी शादी कर तालाब में विसर्जित कर देते हैं।
महिला समाख्या ने जब इस परम्परा के बारे में जाना तो समुदाय के बीच इसके पीछे छिपी मानसिकता पर लोगों के साथ विचार-विमर्ष किया। लम्बी चर्चा और बहस के बाद संघ महिलाओं के समर्थन से लोगों को यह बात समझ में आयी कि यह परम्परा अप्रत्यक्ष रूप से हमारे समाज में चयन के मौलिक अधिकार और सामाजिक सम्मान के लिए हत्या को बढ़ावा दे रही है और महिलाओं के साथ होने वाली हिंसा, वर्गीय हिंसा और समाज में जेण्डर विभेदीकरण को भी बढ़ावा दे रही है। महिला समाख्या ने यह तय किया कि झेंझी टेसू त्योहार तो मनाया जायेगा लेकिन उनको विसर्जित न करते हुए उनके नाम पर पौधा रोपण किया जायेगा। पिछले दस वर्षो से औरैया जिले में संघ महिलायें इस परम्परा को लगातार बढ़ावा देते हुए मना रही हैं।
सवाल यह है कि हमारे देष में परम्पराओं और रीतियों के नाम पर बहुत से ऐसे आचरण, संस्कार, व्रत, त्योहार मनाये जा रहे हैं जो जेण्डर आधारित भेद-भाव और महिला हिंसा को बढ़ावा दे रहे हैं। झेंझी टेसू भी उन्हीं में से एक त्योहार है। यह त्योहार अप्रत्यक्ष रूप से महिलाओं और बच्चियों के मन में इस प्रकार घर कर लेते हैं कि उनकी सोच की दिषा भी इस पर आधारित हो जाती है और यही कारण है कि विवाह जैसा अहम फैसला वह बिना किसी प्रतिरोध के स्वीकार कर लेती हैं। आज भी जितने विवाह होते हैं उसमें 90 प्रतिषत विवाह लड़कियों की बिना इच्छा को जाने होते हैं। कई बार लड़कियां अपने सामाजीकरण के माहौल से ऐसी धारणा ही बना ली होती है कि वह इस विषय पर अपना कोई मत भी नही रखती हैं और सदियों से विवाह और उससे जुड़ी विसंगतियों को ढोती चली आ रही हैं।
विवाह संस्था का आज तक कोई समानान्तर ढाचा नही मिला है लेकिन यदि हम सब चाहते है कि समाज में बदलाव आये तो विवाह संस्था को पुर्न परिभाषित करने के नये अवसर पैदा करने होंगे। चयन के अधिकार को बढ़ावा देना होगा। सम्मान के नाम पर होने वाली हत्याओं को बंद होना होगा।
रीति-रिवाज, परम्परा, हरतालिका तीज
आज सुबह के सभी अखबारों में हरतालिका तीज को मनाये जाने की ढेरों तस्वीरें जिसमें महिलाएं खूब सजी संवरी और पूजा करती हुई, प्रकाशित हुईं। आज हमारे देश में अधिकतर त्योहार बाजारवाद से प्रभावित हैं और यही कारण है कि इन सभी त्योहारों को बेहद ही भव्य व विस्तृत रूप से मनाये जाने का आयोजन किया जाता है। इन त्योहारों को जिस चमक-दमक के साथ आयोजित किया जाता है। निश्चित रूप से लोगों की मानसिकता पर प्रभाव डालता है और यही कारण है कि आज जब कि लड़कियां बड़ी संख्या में शिक्षित हो रही हैं परन्तु इन त्योहारों को मनाने में भी वह उसी तरह से बढ़-चढ़कर और बाध्यता के साथ हिस्सेदारी कर रही हैं।
हरतालिका तीज है क्या? इसका कोई वैज्ञानिक तथ्य नही है परन्तु कहानी के रूप में है कि पार्वती शिव को अपने पति के रूप में पाना चाहती थीं उनके पिता पर्वतराज उनका विवाह किसी हरि नारायण से करना चाहते थे परन्तु उनकी सहेलियों ने उनकी मदद करी और उनको विवाह मण्डप से उनको उठा ले गयी जहां पार्वती ने घोर तपस्या और व्रत करके शिव से विवाह किया। यदि इस कहानी को भी हम सत्य मान लें तो भी इस कहानी में छिपे हुए कुछ मौलिक अधिकार हैं जैसे- चयन का अधिकार, उसके लिए संघर्ष और अपने हम उम्र साथियों का सहयोग। परन्तु परम्परागत रूप में इसका सिर्फ एक पहलू प्रचलन में लाया गया, जिसमें यह कहा गया कि पति की लम्बी उम्र की कामना और पति को पाने की चाहत को पूरा करने के लिए यह व्रत किया जाता है।
सवाल यह है कि यदि हम शिक्षित भी हो रहे हैं तो भी हम अपनी परम्पराओं को बदलने में पिछड़ रहे हैं और यदि हम अशिक्षित हैं तो भी हम अपनी परम्पराओं को बहुत ही मजबूती से निभा रहे हैं। अतः हम कह सकते हैं कि परम्पराओं और रीति रिवाज शिक्षा और अशिक्षा से नही जुड़ा है यह भी एक भ्रांति है क्योंकि हम लोग प्रश्न करने को बुरा मानते हैं और हमारे संस्कार तर्क करने को अनुशासनहीनता के रूप में देखते हैं इसलिए हमारी शिक्षा व्यवस्था में इस प्रकार की जिज्ञासाओं और तर्क वितर्क का स्थान नही है। इसलिए पढ़ी लिखी महिला या किशोरी भी इन परम्पराओं को पूरी धार्मिकता से निभाती हैं अतः आवश्यक है कि ऐसी शिक्षा व्यवस्था को लागू किया जाये जो लोगों में तर्क शक्ति, बदलाव की चाहत, नई सोच को पैदा करने और उसे स्थापित करने के लिए होने वाले संघर्षो को निभाने की ताकत देती हो। जब लोगों में यह समझ आयेगी कि पति कोई स्वामी नही है तो उसकी अराधना नही करेंगी बल्कि बराबरी से, एक दूसरे को सम्मान देते हुए रिश्तों को निभायेंगी।
अगस्त माह से नवंबर तक भारत वर्ष में कुछ महत्वपूर्ण पर्व मनाये जाते हैं। जिसमें रक्षाबंधन और करवाचैथ, सार्वभौमिक रूप से मनाया जाता है और नागपंचमी के दिन गुड़िया पटक्का और झेझीं अैर टेसू दो क्षेत्रीय त्यौहार है। गुड़िया पटक्का मुख्यतः पूर्वांचल का त्यौहार है जो सीतापुर के नैमीषारण्य जिले में प्रमुखता से मनाया जाता है। झेझीं टेसू पष्चिमी उत्तर प्रदेश का त्यौहार जो कि औरैया, एटा, मैनपुर, आदि जिलों में मुख्यतः मनाया जाता है। इन सभी त्यौहारों में एक बात सामान्य है कि सब में औरत ही अपने घर के पुरूषों की दीर्घआयु, स्वास्थ्य, सुरक्षा आदि की कामना करती है। लोग कहते है भारत में आज समानता है और अब तो लड़कियां भी बराबरी से कंधे से कंधा मिलाकर चल रही हैं। तो हमारी परम्पराओं में बदलाव क्यों नही आ रहा है। क्यों अभी भी महिलायें ही पुरूषों की लम्बी कामनाओं की उम्मीद से व्रत या पूजन कर रही हैं।
भाई बहन की कलाई पर धागा बांधकर अपनी रक्षा की कामना करती हैं परन्तु क्या वास्तविकता में ऐसा हो रहा है क्या भाई बराबरी से अपनी बहन के हक और सम्मान की लड़ाई कर पा रहा है। जब बहन की अल्पायु में शादी होती है तो क्या वह भाई रक्षा के लिये खड़ा हो पाता है तो क्या वह भाई रक्षा के लिये खड़ा हो पा रहा है। या जब बहन अपनी पसन्द से शादी करना चाहती है। तो क्या वह भाई उसकी इच्छा में उसके साथ खड़ा हो रहा या उन लोगों के साथ खड़ा रहता है जो लड़कियों के इन मौलिक अधिकारों पर बंधन लगाते हैं? रमिला (गोरखपुर) ने बताया कि मेरा भाई 4 साल का है लेकिन जब मै घर से निकलती हूं तो मेरे घर वाले कहते हैं कि भाई को साथ लिये जाओ। मेरा उनसे सवाल होता है अगर मेरे ऊपर कोई मुसीबत आये तो पहले मै उसकी चिता करूंगी और इस चक्कर में मै न उसको बचा पाऊँगी और न अपने आपको। लेकिन उसके बाद भी वो दबाव बनाकर उसको भेजते हैं।
रक्षाबंधन भावनाओं का त्यौहार है पर हमारी मानसिकता और परम्परागत दृष्टिकोण ने उसको एक संस्कार में बदल दिया, महूर्त देखकर धागा बांधो, बड़ी बहन भी छोटे भाई को राखी बांधकर उसकी आरती उतारेगी और बदले में उपहार अनिवार्य रूप से लेगी। जबकि यदि ऐतिहासिक रूप से रक्षाबंधन को मनाने की कहानी सुनी जाये तो रानी कर्मावती ने युद्ध में मदद के लिये हुमायूँ को धागा भेज कर सहयोग मांगा था। हुमायूँ उससे ताकतवर था और सहिष्णु था। वह एक अलग धर्म का अनुयायी था उसके बाद भी वह मदद के लिये आया। परन्तु आज रक्षाबंधन सिर्फ हिन्दुओं का त्यौहार बन कर रह गया। हर त्यौहार से व्रत जोड़कर औरत को कैसे अंधविश्वासी और धैर्यवान बनाया जाये इसकी जुगत अनिवार्य रूप से की गयी राखी बांधने के पहले बहनें व्रत रखती हैं। साथ ही अन्य घर वालों के लिये पकवान बनाती हैं।
ये सब पितृसत्तात्मक सोच का ही परिणाम है जिसमें औरत को इस प्रकार से घेर लिया जाता है। जिससे उसकी सोचने समझने की शक्ति और तार्किकता समाप्त हो जाती है। इस लिये वह हर तीज त्यौहारों में ही अपना प्यार व भावनाएं समझनें लगती हैं और पूरी श्रद्धा और ईमानदारी से निभाती हैं।
रक्षाबंधन हम सब मनाते हैं। लेकिन यह जेण्डर आधारित भेदभाव की मानसिकता से मनाया जाने वाला त्यौहार है। जिससे अनजाने में ही शारीरिक व मानसिक रूप से हम पुरूष को स्त्री की तुलना में ज्यादा शक्तिशाली व सशक्त मानने की परिकल्पना करते हैं-
रीति रिवाज और परम्पराएं - झेंझी टेसू
पिछले अंक में हमने बात की थी गुड़िया पटक्का की, जो कि महिला हिंसा से जुड़ा हुआ त्योहार है। इसी कड़ी में आज हम बात करेंगे झेंझी टेसू की जो कि पष्चिमी उत्तर प्रदेष- औरैया, मैनपुरी, एटा, इटावा, कन्नौज, कानपुर देहात आदि जिलो में मनाया जाता है यह त्योहार सितम्बर-अक्टूबर में आयोजित होता है। यह त्योहार समाज में चयन के अधिकार पर रोक और समाजिक सम्मान के नाम पर हत्या को उचित ठहराते हुए सार्वजनिक रूप से मनाया जाता है।
इस त्योहार के पीछे छिपी कहानी यह है कि ‘‘झेंझी नामक लड़की को नीची जाति के लड़के टेसू से प्यार हो जाता है और दोनों शादी कर लेते हैं। लेकिन जब यह गांव वालों के सामने आते हैं तो उनके घरवाले व गांव वाले मिलकर दोनों की हत्या कर देते हैं और गांव के तालाब में गाड़ देते हैं। सदियों से इस त्योहार को लोग मना रहे हैं। दो मटकों को प्रतीक चिन्ह झेंझी टेसू के रूप में अपने घरों में सात दिन पूजा करते हैं और उसके पश्चात् उनकी शादी कर तालाब में विसर्जित कर देते हैं।
महिला समाख्या ने जब इस परम्परा के बारे में जाना तो समुदाय के बीच इसके पीछे छिपी मानसिकता पर लोगों के साथ विचार-विमर्ष किया। लम्बी चर्चा और बहस के बाद संघ महिलाओं के समर्थन से लोगों को यह बात समझ में आयी कि यह परम्परा अप्रत्यक्ष रूप से हमारे समाज में चयन के मौलिक अधिकार और सामाजिक सम्मान के लिए हत्या को बढ़ावा दे रही है और महिलाओं के साथ होने वाली हिंसा, वर्गीय हिंसा और समाज में जेण्डर विभेदीकरण को भी बढ़ावा दे रही है। महिला समाख्या ने यह तय किया कि झेंझी टेसू त्योहार तो मनाया जायेगा लेकिन उनको विसर्जित न करते हुए उनके नाम पर पौधा रोपण किया जायेगा। पिछले दस वर्षो से औरैया जिले में संघ महिलायें इस परम्परा को लगातार बढ़ावा देते हुए मना रही हैं।
सवाल यह है कि हमारे देष में परम्पराओं और रीतियों के नाम पर बहुत से ऐसे आचरण, संस्कार, व्रत, त्योहार मनाये जा रहे हैं जो जेण्डर आधारित भेद-भाव और महिला हिंसा को बढ़ावा दे रहे हैं। झेंझी टेसू भी उन्हीं में से एक त्योहार है। यह त्योहार अप्रत्यक्ष रूप से महिलाओं और बच्चियों के मन में इस प्रकार घर कर लेते हैं कि उनकी सोच की दिषा भी इस पर आधारित हो जाती है और यही कारण है कि विवाह जैसा अहम फैसला वह बिना किसी प्रतिरोध के स्वीकार कर लेती हैं। आज भी जितने विवाह होते हैं उसमें 90 प्रतिषत विवाह लड़कियों की बिना इच्छा को जाने होते हैं। कई बार लड़कियां अपने सामाजीकरण के माहौल से ऐसी धारणा ही बना ली होती है कि वह इस विषय पर अपना कोई मत भी नही रखती हैं और सदियों से विवाह और उससे जुड़ी विसंगतियों को ढोती चली आ रही हैं।
विवाह संस्था का आज तक कोई समानान्तर ढाचा नही मिला है लेकिन यदि हम सब चाहते है कि समाज में बदलाव आये तो विवाह संस्था को पुर्न परिभाषित करने के नये अवसर पैदा करने होंगे। चयन के अधिकार को बढ़ावा देना होगा। सम्मान के नाम पर होने वाली हत्याओं को बंद होना होगा।
रीति-रिवाज, परम्परा, हरतालिका तीज
आज सुबह के सभी अखबारों में हरतालिका तीज को मनाये जाने की ढेरों तस्वीरें जिसमें महिलाएं खूब सजी संवरी और पूजा करती हुई, प्रकाशित हुईं। आज हमारे देश में अधिकतर त्योहार बाजारवाद से प्रभावित हैं और यही कारण है कि इन सभी त्योहारों को बेहद ही भव्य व विस्तृत रूप से मनाये जाने का आयोजन किया जाता है। इन त्योहारों को जिस चमक-दमक के साथ आयोजित किया जाता है। निश्चित रूप से लोगों की मानसिकता पर प्रभाव डालता है और यही कारण है कि आज जब कि लड़कियां बड़ी संख्या में शिक्षित हो रही हैं परन्तु इन त्योहारों को मनाने में भी वह उसी तरह से बढ़-चढ़कर और बाध्यता के साथ हिस्सेदारी कर रही हैं।
हरतालिका तीज है क्या? इसका कोई वैज्ञानिक तथ्य नही है परन्तु कहानी के रूप में है कि पार्वती शिव को अपने पति के रूप में पाना चाहती थीं उनके पिता पर्वतराज उनका विवाह किसी हरि नारायण से करना चाहते थे परन्तु उनकी सहेलियों ने उनकी मदद करी और उनको विवाह मण्डप से उनको उठा ले गयी जहां पार्वती ने घोर तपस्या और व्रत करके शिव से विवाह किया। यदि इस कहानी को भी हम सत्य मान लें तो भी इस कहानी में छिपे हुए कुछ मौलिक अधिकार हैं जैसे- चयन का अधिकार, उसके लिए संघर्ष और अपने हम उम्र साथियों का सहयोग। परन्तु परम्परागत रूप में इसका सिर्फ एक पहलू प्रचलन में लाया गया, जिसमें यह कहा गया कि पति की लम्बी उम्र की कामना और पति को पाने की चाहत को पूरा करने के लिए यह व्रत किया जाता है।
सवाल यह है कि यदि हम शिक्षित भी हो रहे हैं तो भी हम अपनी परम्पराओं को बदलने में पिछड़ रहे हैं और यदि हम अशिक्षित हैं तो भी हम अपनी परम्पराओं को बहुत ही मजबूती से निभा रहे हैं। अतः हम कह सकते हैं कि परम्पराओं और रीति रिवाज शिक्षा और अशिक्षा से नही जुड़ा है यह भी एक भ्रांति है क्योंकि हम लोग प्रश्न करने को बुरा मानते हैं और हमारे संस्कार तर्क करने को अनुशासनहीनता के रूप में देखते हैं इसलिए हमारी शिक्षा व्यवस्था में इस प्रकार की जिज्ञासाओं और तर्क वितर्क का स्थान नही है। इसलिए पढ़ी लिखी महिला या किशोरी भी इन परम्पराओं को पूरी धार्मिकता से निभाती हैं अतः आवश्यक है कि ऐसी शिक्षा व्यवस्था को लागू किया जाये जो लोगों में तर्क शक्ति, बदलाव की चाहत, नई सोच को पैदा करने और उसे स्थापित करने के लिए होने वाले संघर्षो को निभाने की ताकत देती हो। जब लोगों में यह समझ आयेगी कि पति कोई स्वामी नही है तो उसकी अराधना नही करेंगी बल्कि बराबरी से, एक दूसरे को सम्मान देते हुए रिश्तों को निभायेंगी।
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